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Thursday, August 18, 2011

महापरिवतर्न जब भी कभी आरंभ होगा, तब उसका स्वरूप एक ही होगा


महापरिवतर्न जब भी कभी आरंभ होगा, तब उसका स्वरूप एक ही होगा कि विद्या को जीवित-जागृत किया जाए उसके प्रचार-विस्तार का इतना प्रचंड प्रयास किया जाए कि लंबे समय से छाए हुए कुहासे को हटाया जा सके और उस प्रकाश को उभारा जाए, जो हर वस्तु का यथार्थ स्वरूप दिखाता और किसका, किस प्रकार सहयोग होना चाहिए-यह सिखाता है
प्राचीनकाल में साक्षरता का, भाषा और लिपि का महत्त्व तो सभी समझते थे और उसे पुरोहित-यजमान मिलजुल कर हर जगह सुचारु रूप से पूरा कर लेते थे पुरोहितों की आजीविका हेतु शिक्षाथिर्यों के अभिभावक दान-दक्षिणा के रूप में जो दे दिया करते थे, वही अपरिग्रही, मितव्ययी जीवन जीने वाले ब्राह्मणों के लिए पयार्प्त होती थी शिक्षा-साक्षरता के लिए कोई विशेष योजना या व्यवस्था नहीं बनानी पड़ती थी
संजीवनी विद्या का दायित्व ऋषि वर्ग के मनीषी उठाते थे जो अधिकारी होते थे, उन्हें अपने आश्रमो, गुरुकुलों एवं आरण्यकों में बुलाते थे उपयुक्त वातावरण में उपयुक्त अभ्युदय की समुचित योजना चलाते थे
समस्याएँ आज की समाधान कल के पृष्ठ-३४

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