काम कितना अधिक करने को पड़ा है । मंजिल कितनी लम्बी पार करनी है । विकृतियों की जड़ कितनी गहरी है । सृजन के कितने साधन जुटाने हैं, उसे देखते हैं, तो लगता है कि इस युग के हर भावनाशील जीवित व्यक्ति को गौतम बुद्ध, शंकराचार्य, समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, रामतीर्थ, गाँधी, दयानंद की तरह भरी जवानी में ही कर्मक्षेत्र में कूद पड़ना चाहिए । बुढ़ापे की राह नहीं देखना चाहिए ।
पर इतना साहस न हो, तो कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि पके फल की तरह पेड़ में चिपके रहने की धृष्टता न करें । जिनके पारिवारिक उत्तदायित्व पूरे हो चुके हैं, वे घर-गृहस्थी की छोटी सीमा में ही आबद्ध न रहकर विशाल कर्मक्षेत्र में उतरें और जन-जागृति का शंख बजाएँ-युग परिवर्तन की कमान सँभालें ।
पर इतना साहस न हो, तो कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि पके फल की तरह पेड़ में चिपके रहने की धृष्टता न करें । जिनके पारिवारिक उत्तदायित्व पूरे हो चुके हैं, वे घर-गृहस्थी की छोटी सीमा में ही आबद्ध न रहकर विशाल कर्मक्षेत्र में उतरें और जन-जागृति का शंख बजाएँ-युग परिवर्तन की कमान सँभालें ।
हमारी युग निर्माण योजना-१-१७२
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