हर मनुष्य में अपने प्रति पक्षपात करने की दुर्बलता पाई जाती है । आँखें बाहर को देखती हैं, भीतर का कुछ पता नहीं । कान बाहर के शब्द सुनते हैं, अपने हृदय और फेफडों से कितना अनवरत ध्वनि प्रवाह गुंजित होता है, उसे सुन ही नहीं पाते । इसी प्रकार दूसरों के गुण-अवगुण देखने में रुचि भी रहती है और प्रवीणता भी, पर ऐसा अवसर कदाचित ही आता है जब अपने दोषों को निष्पक्ष रूप से देखा और स्वीकारा जा सके । आमतौर से अपने गुण ही गुण दीखते हैं, दोष तो एक भी नजर नहीं आता । कोई दूसरा बताता है तो वह शत्रुवत् प्रतीत होता है । आत्म समीक्षा कोई कब करता है । वस्तुतः दोष र्दुगुणों के सुधार के लिए अपने आपसे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं ।
(अखण्ड ज्योति-आत्मोत्कर्ष के चार अनिवार्य चरण ः १९७७, जन० ५)
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