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Thursday, June 9, 2011

दोष र्दुगुणों के सुधार के लिए अपने आपसे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं

हर मनुष्य में अपने प्रति पक्षपात करने की दुर्बलता पाई जाती है आँखें बाहर को देखती हैं, भीतर का कुछ पता नहीं कान बाहर के शब्द सुनते हैं, अपने हृदय और फेफडों से कितना अनवरत ध्वनि प्रवाह गुंजित होता है, उसे सुन ही नहीं पाते इसी प्रकार दूसरों के गुण-अवगुण देखने में रुचि भी रहती है और प्रवीणता भी, पर ऐसा अवसर कदाचित ही आता है जब अपने दोषों को निष्पक्ष रूप से देखा और स्वीकारा जा सके आमतौर से अपने गुण ही गुण दीखते हैं, दोष तो एक भी नजर नहीं आता कोई दूसरा बताता है तो वह शत्रुवत् प्रतीत होता है आत्म समीक्षा कोई कब करता है वस्तुतः दोष र्दुगुणों के सुधार के लिए अपने आपसे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं
(अखण्ड ज्योति-आत्मोत्कर्ष के चार अनिवार्य चरण १९७७, जन० )

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