सद्विचार तब तक मधुर कल्पना भर बने रहते हैं, जब तक उन्हें कार्य रूप में परिणित नहीं किया जाता । विचारों और कार्यों का समन्वय ही संस्कार बनता है । सार्मथ्य संस्कारों में ही होती है । उन्हीं के सहारे व्यक्तित्व बनता है और वे ही भविष्य निर्धारण की प्रमुख भूमिका निभाते हैं । संस्कार अर्थात् चिन्तन और चरित्र का अभ्यस्त ढर्रा । जहाँ तक सुसंस्कारिता की उपलब्धि का सम्बन्ध है, वह सत्प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में निःस्वार्थ भाव से निरत हुए बिना और किसी प्रकार सम्भव ही नहीं हो सकती ।
(अखण्ड ज्योति-आत्मोत्कर्ष का अल्ाभ्य अवसर ः १९८०, अप्रैल ५५
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