मित्रो ! वासना और तृष्णा की खाई इतनी चौड़ी और गहरी है कि उसे पाटने में कुबेर की संपदा और इंद्र की समथर्ता भी कम पड़ती है । तृष्णा की रेगिस्तानी जलन को बुझाने के लिए साधन सामग्री का थोड़ा-सा पानी, कुछ काम नहीं करता । अतृप्ति जहाँ की तहाँ बनी रहती है । थोड़े से उपभोग तो उस ललक को और भी तेजी से आग में ईधन पड़ने की तरह भड़का देते हैं ।
मन के छुपे रुस्तम का तो कहना ही क्या? वह यक्ष राक्षस की तरह अदृश्य तो रहता है, पर कौतुक-कौतूहल इतने बनाता-दिखाता रहता है कि उस व्यामोह में फँसा मनुष्य दिग्भ्रांत बनजारे की तरह, इधर-उधर मारे-मारे फिरने में ही अपनी समूची चिंतन क्षमता गँवा-गुमा दे । तृष्णा तो समुद्र की चौड़ाई और गहराई से भी बढ़कर है । उसे तो भस्मासुर, वृत्रासुर, महिषासुर जैसे महादैत्य भी पूरी न कर सके, फिर बेचारे मनुष्य की तो विसात ही क्या है, जो उसे शांत करके संतोष का आधार प्राप्त कर सके ।
सतयुग की वापसी--पृष्ठ-८
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