मित्रो ! दैवी अनुग्रह के संबंध में भी लोगों की विचित्र कल्पनाएँ हैं । वे उन्हीं छोटी संभावनाओं को दैवी अनुकंपा मानते रहते हैं, जो सामान्य पुरुषार्थ से अथवा अनायास ही संयोगवश लोगों को उपलब्ध होती रहती है । मनोकामनाओं तक ही उनका नाक रगड़ना, गिड़गिड़ाना सीमित रहता है, जिसे वे दैवी अनुकंपा मानते हैं । आत्मबल एवं आत्मविश्वास न होने से जो कुछ प्राप्त होता, है, उसे पुरुषार्थ का प्रतिफल मानकर उनका मन संतुष्ट ही नहीं होता, उनके लिए हर सफलता दैवी अनुग्रह और हर असफलता दैवी प्रकोप मात्र प्रतीत होती है । ऐसे दुबर्ल चेताओं की बात छोड़ दें तो यथाथर्ता समझ में आ जाती है पर अंततः एक ही तथ्य सामने आता है कि मनुष्य जब आदशर्वादी अनुकरणीय-अभिनंदनीय कर्मो को करने के लिए उमंगों-तरंगों से भर जाता है तो वह असाधारण कदम उठाने लगता है । रावण की सभा में अंगद का पैर उखाड़ना तक असंभव प्रतीत होने लगा था । औसत आदमी को तो हर काम असंभव लगता है । ऐसे छोटा त्याग करना भी उसे पहाड़ उठाने जैसा भारी पड़ता है, जो वस्तुतः हलके-फुलके ही होते हैं और हिम्मत के धनी आदशर्वादी, जिन्हें आए दिन करते रहते हैं ।
प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया--पृष्ठ-१६
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