मैले कपड़े को साफ करने के लिए जो उपयोगिता साबुन की है वही मन पर चढ़े हुए मैलों को शुद्ध करने के लिए स्वाध्याय की है । मनुष्य के पास सर्वोत्तम विशेषता उसकी बुद्धि की ही है और इन विचारों का सही एवं सुसंस्कृत बनना स्वाध्याय पर निर्भर है । श्रेष्ठ पुरुषों की कमी, उनके पास समय का अभाव और अपने लिए भी समुचित फुरसत की कमी रहने के कारण प्रायः उपयुक्त सत्संग की व्यवस्था बन सकना कठिन है । ऐसी दशा में जीवन-निमार्ण के श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन ही सत्संग की आवश्यकता को पूरी करता है । जिस प्रकार भोजन त्याग कर शरीर को जीवित रख सकना कठिन है, इसी प्रकार स्वाध्याय की उपेक्षा करके, उसका परित्याग करके कोई व्यक्ति न तो अपने आत्मिक स्तर को ऊँचा उठा सकता और न स्थिर रख सकता है । बिना पढ़े लोगों के लिए भी उचित है कि वे श्रेष्ठ-साहित्य का श्रवण किया करें । दुभिर्क्ष काल में जिस प्रकार साधन सम्पन्न लोग भूखों मरते हुओं को अन्न की व्यवस्था जुटाते हुए पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं उसी प्रकार स्वाध्यायशील सज्जनों का कर्तव्य है कि जीवन-निमार्ण साहित्य अपने घर के तथा बाहर के अशिक्षितों को पढ़कर सुनाया करें और उनके आत्मिक जीवन को अपने पसीने से सींच कर हरा-भरा रखने का पुण्य प्राप्त किया करें ।
- वाङमय-६६-पृष्ठ-५.९
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