लेखों और भाषणों का युग अब बीत गया । गाल बजाकर, लम्बी-चौड़ी डींग हाँककर या बड़े-बड़े कागज काले करके संसार के सुधार की आश्शा करना व्यर्थ है । इन साधनों से थोड़ी मदद मिल सकती है पर उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता । युग-निर्माण जैसे महान् कार्य के लिए तो यह साधन सर्वथा अपर्याप्त और अपूणर् हैं । इसका प्रधान साधन वही हो सकता है कि हम अपना मानसिक स्तर ऊँचा उठाएँ, चरित्रात्मक दृष्टि से अपेक्षाकृत उत्कृष्ठ बनें । अपने आचरण से ही दूसरों को प्रभावशाली शिक्षा दी जा सकती है । गणित, भूगोल, इतिहास आदि की शिक्षा में कहने-सुनने की प्रक्रिया से काम चल सकता है पर व्यक्ति निमार्ण के लिए तो निखरे हुए व्यक्तित्वों की ही आवश्यकता पड़ेगी । उस आवश्यकता की पूतिर् के लिए उत्कृष्टता के संदभर् में संसार की श्रेष्ठता अपने आप बढ़ने लगेगी । हम बदलेंगे तो युग भी जरूर बदलेगा और हमारा युग-निमार्ण संकल्प भी अवश्य पूणर् होगा ।
वांङमय-६६ पृष्ठ नं-५.२०
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