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Tuesday, July 5, 2011

मन कुचाल छोड़, इन्दि्रय लिप्साओं में भटकना छोड़

वासना आग की तरह है, भोग उपभोग से यह शान्त होने वाली नहीं है । इन्हें तृप्त करने के जितने ही साधन जुटायेगा उतनी ही अतृप्ति भड़केगी । फिर उनके कुचक्र में जितना ही फँसा जाय उतनी ही क्षमता, आयु, प्रतिभा घटती है । क्षणिक चटोरेपन के पीछे समर्थता की सम्पत्ति को गँवाने और दिन-दिन दुर्बल होते जाने से क्या लाभ? बता मन, तू कोयलों के ऊपर मुहरें निछावर करने में क्या बुद्धिमत्ता अनुभव कर रहा है?

आत्मा रोती-बिलखती रही, उसके सन्तोष उत्थान, कल्याण के लिए एक कदम नहीं बढ़ाया गया, एक प्रयत्न नहीं किया गया । अन्तरात्मा की सहचरी सत्प्रवृत्तियाँ कुम्हलाईं, मुरझाईं और सूख गईं । उन्हें सींचने के लिए एक लोटा पानी नहीं डाला जा सका । सद्भाव के बालक अपने पोषण की पुकार करते रहे; उनकी आवश्यकताएँ जुटाने से मुँह मोड़े रहा गया, पर दुर्बद्धि, दुष्प्रवृत्ति और दुर्भावनाओंं के पोषण लिए तरह-तरह के साज-सरंजाम जुटाये जाते रहे । परिवार का पोषण, विकास करना पर्याप्त था । पर उन्हें विलासी और धन कुबेर बनाकर छोड़ जाने के मोह से सारी ममता उन्हीं पर उँडेल दी गई । उन्हें ही अपना समझा गया । जो कुछ किया जाय उन्हीं के लिए, जो कुछ सोचा जाय उन्हीं के लिए, सम्पन्न बनाया जाय तो उन्हीं को, समृद्ध बनें तो वे ही । उस छोटे से दायरे में अपनी सारी ममता समेटकर मन तू ठगा गया । इस मोहग्रस्तता ने लोक भी बिगाड़ा और परलोक भी । बता मन तू इसी चाल पर कब तक चलता रहेगा? विश्व परिवार की ओर से कब तक आँखें बन्द कराये रहेगा?
- वाङमय 22-2.79

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