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Sunday, June 26, 2011

हमारे सतयुगी सपनों का महल

आज मनुष्य को जीना कहाँ आता है? जीना भी एक कला है । सब आदमी खाते हैं, पीते हैं, सोते हैं और मौत के मुँह में चले जाते हैं, किन्तु जीना नहीं जानते । जीना बड़ी शानदार चीज है । इसको संजीवनी विद्या कहते हैं-जीवन जीने की कला । यहाँ हम अपने विश्वविद्यालय में, शांतिकंुज में जीवन जीने की कला सिखाते हैं और यह सिखाते हैं कि आज के गए-बीते जमाने में आप अपनी नाव पार करने के साथ-साथ सैकड़ों आदमियों को बिठाकर पार किस तरह से लगा पाते हैं? 
- वाङमय-६८-पृष्ठ-१.४०

शांतिकुंज धर्मशाला नहीं है । यह कॉलेज है, विश्वविद्यालय है । कायाकल्प के लिए बनी एक अकादमी है । हमारे सतयुगी सपनों का महल है । आपमें जिन्हें आदमी बनना हो, बनाना हो, इस विद्यालय की संजीवनी विद्या सीखने के लिए आमंत्रण है । कैसे जीवन को ऊँ चा उठाया जाता है, समाज की समस्याओं को कैसे हल किया जाता है? यह आप लोगों को सिखाया जाएगा । दावत है आप सबको । आप सबमें जो विचारशील हों, भावनाशील हों, हमारे इस कार्यक्रम का लाभ उठाएँ । अपने को धन्य बनाएँ और हमको भी ।
- वाङमय-६८-पृष्ठ-१.४१

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