हमारे भोगों, उपलब्धियों और प्रवृत्तियों के एकमात्र सूत्र संचालक हमारे स्वयं के कर्म ही हैं । तब फिर देवताओं और विधाता को प्रसन्न करने की चिन्ता करते रहना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? हमारा साध्य और असाध्य तो कर्म ही है । वही वन्दनीय - अभिवन्दनीय है, वही वरण और आचरण के योग्य है । दैवी विधान भी उससे भिन्न और उसके विरुद्ध कुछ कभी नहीं करता । कर्म ही सवोर्परि है । परिस्थितियों और मनःस्थितियों का वही निमार्ता है । उसी की साधना से अभीष्ट की उलपब्धि सम्भव है ।
(अखण्ड ज्योति - कर्म ही सवोर्परि १९८०, फर ०२)
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