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Friday, June 10, 2011

कर्म ही सवोर्परि है

हमारे भोगों, उपलब्धियों और प्रवृत्तियों के एकमात्र सूत्र संचालक हमारे स्वयं के कर्म ही हैं तब फिर देवताओं और विधाता को प्रसन्न करने की चिन्ता करते रहना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? हमारा साध्य और असाध्य तो कर्म ही है वही वन्दनीय - अभिवन्दनीय है, वही वरण और आचरण के योग्य है दैवी विधान भी उससे भिन्न और उसके विरुद्ध कुछ कभी नहीं करता कर्म ही सवोर्परि है परिस्थितियों और मनःस्थितियों का वही निमार्ता है उसी की साधना से अभीष्ट की उलपब्धि सम्भव है
(अखण्ड ज्योति - कर्म ही सवोर्परि १९८०, फर ०)

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