वस्तुतः आदमी का व्यक्तित्व विभाजित है । एक ओर वह संपर्क के व्यक्तियों तथा संचित सुख-साधनों में अपनी सुरक्षा समझता है, तो दूसरी ओर उनमें उसे खालीपन, एक शून्यता की भी अनुभूति होती है । उसे लगता तो है कि अन्तः में प्रवेश करना चाहिए, यह जानना चाहिए कि वस्तुतः हमारे जीवन का मकसद क्या है? पर इस सम्भावना से वह भयभीत है कि आत्म निरीक्षण मुझे कहीं निराश न कर दे, मेरा स्ाही स्वरूप न उजागर कर दे । यह घोषणा तो करता है कि वह कुछ बड़ा काम करेगा, पर कर नहीं पाता । वह अपने आपको दूसरों के साथ सम्मिलित तो करना चाहता है, पर 'स्व' को भुला व घुला नहीं पाता । रह-रहकर वे ही चिर संचित संस्कार आड़े आ जात हैं जो उसके अनगढ़ मन के महत्त्वपूर्ण घटक बन गये हैं । उसकी मुस्कराहट में एक चिन्ता की झलक दिखाई पड़ती है । वह अपनी चिन्ता को दूर करने के लिए स्वयं को विभिन्न गतिविधियों में उलझाता है, पर जब वे समाप्त होने लगती हैं तो संभावित नीरवता उसे भयभीत कर देती है ।
(अखण्ड ज्योति-अचेतन में मानवी गरिमा का उद्गम स्रोत ः १९८२, जन० ३७)
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