Pages

Wednesday, August 3, 2011

अब तुम पर निर्भर है कि तुम कितना हमारे बनते हो?

तुम सब हमारी भुजा बन जाओ, हमारे अंग बन जाओ, यह हमारे मन की बात है । अब तुम पर निर्भर है कि तुम कितना हमारे बनते हो? समर्पण का अर्थ है दो का अस्तित्व मिट कर एक हो जाना । तुम भी अपना अस्तित्व मिटाकर हमारे साथ मिला दो व अपनी क्षुद्र महत्त्वाकांक्षाओं को विलीन कर दो । जिसका अहं जिंदा है, वह वेश्या है । जिसका अहं मिट गया वह पवित्र है । देखना है कि हमारी भुजा, आँख, मस्तिष्क बनने के लिए तुम कितना अपने अहं को गला पाते हो?
परम पूज्य गुरुदेव
श्रावणी पर्व-१९८८ कार्यकर्ता संदेशाा

No comments:

Post a Comment