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Thursday, June 23, 2011

इक्कीसवीं सदी भाव-संवेदनाओं के उभरने- उभारने की अवधि है

हमारे प्रेमी-परिजन लोभ-मोह के जाल से जिस हद तक निकल सकें, निकलने के लिए पूरा जोर  लगाएँ । भौतिक और व्यक्तिगत महत्त्वा-कांक्षाओं की कीचड़ से निकलकर विश्व-मानव की आराधना के लिए त्याग-बलिदान भरा अनुदान अधिक से अधिक मात्रा में उत्पन्न करें ।
पश्चिम का भोगवाद जिस अग्नि में-तेजाबी तालाब में जलता-कलपता, निष्ठुर स्वार्थपरता की कीचड़ में डूबा विकल, संत्रस्त दृष्टिगोचर हो रहा है, उसे भारतीय अध्यात्म ही भावसंवेदना की गंगोत्री में स्नान कराके मुक्ति दिलाएगा । इक्कीसवीं सदी भाव-संवेदनाओं के उभरने- उभारने की अवधि है । हमें इस उपेक्षित क्षेत्र को ही हरा-भरा बनाने में निष्ठावान माली की भूमिका निभानी चाहिए ।
- परम पूज्य गुरुदेव

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