बुद्ध ने स्वयं घर त्यागा तो उनके अनुयायी ढाई लाख युवक, युवतियाँ उसी मार्ग पर चलने के लिए तैयार हो गये । गाँधीजी को जो दूसरों से कराना था, पहले उन्होंने उसे स्वयं किया । यदि वे केवल उपदेश करते और अपना आचरण विपरीत प्रकार का रखते तो उनके प्रतिपादन को बुद्धिसंगत भर बताया जाता, कोई अनुगमन करने को तैयार न होता । जहाँ तक व्यक्ति के परिवर्तन का प्रश्न है वह परिवर्तित व्यक्ति का आदर्श सामने आने पर ही सम्भव होता है । बुद्ध, गाँधी, हरिश्चन्द्र आदि ने अपने को एक साँचा बनाया तब कहीं दूसरे खिलौने, दूसरे व्यक्तित्व उसमें ढलने शुरू हुए ।
वाङमय-६६.पृष्ठ नं-१.२७
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