Pages

Monday, July 4, 2011

पुरूषार्थ के दो पक्ष हैं-एक श्रम और दूसरा मनोयोग

 पुरूषार्थ के दो पक्ष हैं-एक श्रम और दूसरा मनोयोग । श्रम में स्फूर्ति और तत्परता होनी चाहिए । मनोयोग में तन्मयता, निष्ठा का समावेश होना चाहिए । अन्यथा इन दोनों का स्तर नहीं बनता और चिह्न पूजा होने जैसी स्थिति बनी रहती है । लकीर पीटते रहने को पुरूषार्थ नहीं बेगार भुगतना कहा जाता है । उसका प्रतिफल भी नहीं के बराबर ही होता है । साधना के क्षेत्र में भी उच्चस्तरीय पुरूषार्थ चाहिए । साधक की उपासना में सघन श्रद्धा और जीवन प्रक्रिया में उत्कृष्टता का अधिकाधिक समन्वय होना चाहिये । भजन-पूजन बेगार भुगतने की तरह क्रिया-कृत्य बनकर ही नहीं चलते रहना चाहिये वरन् उसमें सघन निष्ठा का समावेश होना चाहिये ।
साधनात्मक पुरूषार्थ में तीन चरणों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये । प्रथम चरण में उपासना का नियमित और निश्चित होना द्वितीय चरण में व्यक्तित्व में पवित्रता एवं प्रखरता का समावेश बढ़ना तृतीय चरण में तपश्चर्या की संयम एवं सेवा की शर्तो को पूरा किया जाना चाहिए । साधक इन्हीं के सहारे सशक्त बनता है । संसार से सम्मान, सहयोग एवं दैवी अनुग्रह का लाभ सहज ही प्राप्त होने लगता है ।
- परम पूज्य गुरुदेव

No comments:

Post a Comment