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Friday, June 3, 2011

श्रद्धा' सत् तत्त्वों के प्रति ही सघन होती है


'श्रद्धा' सत् तत्त्वों के प्रति ही सघन होती है, असत् के प्रति नहीं श्रेष्ठता का समावेश जहाँ भी होता है, श्रद्धा वहीं टिकती है, अन्यत्र नहीं वस्तुस्थिति प्रकट होने पर श्रेष्ठता के भ्रम में विकसित हुई श्रद्धा-अश्रद्धा में बदल जाती है श्रेष्ठता का पाखण्ड जैसे ही ध्वस्त होता है, अपने साथ श्रद्धा को भी विनष्ट कर देता है परमात्मा के प्रति श्रद्धा डिगने के कारण उसके अस्तित्व एवं अनुग्रह के प्रति तनिक भी आश्शंका का होना ही है प्रगाढ़ श्रद्धा तो मिट्टी में भी भगवान् का दर्शन करा देती है
(अखण्ड ज्योति-१९७९, अक्टू० ४८)

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