'श्रद्धा' सत् तत्त्वों के प्रति ही सघन होती है, असत् के प्रति नहीं । श्रेष्ठता का समावेश जहाँ भी होता है, श्रद्धा वहीं टिकती है, अन्यत्र नहीं । वस्तुस्थिति प्रकट होने पर श्रेष्ठता के भ्रम में विकसित हुई श्रद्धा-अश्रद्धा में बदल जाती है । श्रेष्ठता का पाखण्ड जैसे ही ध्वस्त होता है, अपने साथ श्रद्धा को भी विनष्ट कर देता है । परमात्मा के प्रति श्रद्धा न डिगने के कारण उसके अस्तित्व एवं अनुग्रह के प्रति तनिक भी आश्शंका का न होना ही है । प्रगाढ़ श्रद्धा तो मिट्टी में भी भगवान् का दर्शन करा देती है ।
(अखण्ड ज्योति-१९७९, अक्टू० ४८)
No comments:
Post a Comment