विश्वास रखिए दुःख का अपना कोई मूल अस्तित्व नहीं होता । इसका अस्तित्व मनुष्य का मानसिक स्तर ही होता है । यदि मानसिक स्तर योग्य और अनुकूल है तो दुःख की अनुभूति या तो होगी ही नहीं और यदि होगी तो बहुत क्षीण । तथापि, यदि आपको दुःख की अनुभूति सत्य प्रतीत होती है, तब भी उसका अमोघ उपाय यह है कि उसके विरुद्ध अपनी आश्शा, साहस और उत्साह के प्रदीप जलाये रखे जायें । अंधकार के तिरोधान और प्रकाश के अस्तित्व से बहुत से अकारण भय हो जाता है ।
दूसरों के प्रति बैर भाव रखने से मानस क्षेत्र में उत्तेजना और असंतुलन उत्पन्न हो जाता है । हम जिन व्यक्तियों को शत्रु मानते हुए उनसे घृणा करते हैं, उन्हें याद कर अपने ऊपर हावी कर लेते हैं । गुप्त मन में उन वस्तुओं, व्यक्तियों या शत्रुओं के प्रति भय बना रहता है । मानसिक जगत् में निरन्तर बैर और शत्रुता का भाव बना रहने से हमारे स्वास्थ्य पर दूषित प्रभाव पड़ता है । शत्रु भाव हमारी भूख बंद कर देता है-नींद हराम कर देता है । फल यह होता है कि हमारा स्वास्थ्य और प्रसन्नता सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं । हम जीवित रहकर भी दुर्भावनाओं के कारण नरक की यातनाएँ भोगते हैं ।
दूसरों के प्रति बैर भाव रखने से मानस क्षेत्र में उत्तेजना और असंतुलन उत्पन्न हो जाता है । हम जिन व्यक्तियों को शत्रु मानते हुए उनसे घृणा करते हैं, उन्हें याद कर अपने ऊपर हावी कर लेते हैं । गुप्त मन में उन वस्तुओं, व्यक्तियों या शत्रुओं के प्रति भय बना रहता है । मानसिक जगत् में निरन्तर बैर और शत्रुता का भाव बना रहने से हमारे स्वास्थ्य पर दूषित प्रभाव पड़ता है । शत्रु भाव हमारी भूख बंद कर देता है-नींद हराम कर देता है । फल यह होता है कि हमारा स्वास्थ्य और प्रसन्नता सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं । हम जीवित रहकर भी दुर्भावनाओं के कारण नरक की यातनाएँ भोगते हैं ।
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