महात्मा बुद्ध का कथन है कि अन्तःकरण भी एक मुख है । दर्पण में हम अपना मुख देखते हैं तथा सौन्दर्य देखकर प्रमुदित होते हैं । हमारे मुँह पर यदि धब्बे या कालौंच आदि होती है तो उसे भी सप्रयास छुटाने की चेष्टा करते हैं । आवश्यकता इस बात की है कि इस अन्तःकरण रूपी मुख को भी हम नित्यप्रति चेतना के दर्पण में देखें-परखें और उसके सौन्दर्य में अभिवृद्धि करें । आत्मनिरीक्षण करके देखें कि किन-किन कषाय कल्मषों ने आत्मा के अनन्त सौन्दर्य को आच्छादित कर रखा है । कामनाओं और वासनाओं ने कहीं उसे पथ-भ्रष्ट तो नहीं कर रखा? आश्शा और तृष्णा रूपी भयंकर ग्रहोने अपने चंगुल में उसे जकड़ तो नहीं रखा? जब इन प्रश्नों का उत्तर 'नहीं' में मिलने लगेगा तो व्यक्ति तुच्छ से महान, लघु से विराट् और नर से नारायण बन जायेगा ।
- वाङमय-22-3.35
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